विधिक वृत्ति (Legal profession) वह वृत्ति (व्यवसाय) है जिससे सम्बन्धित लोग
विधि का अध्ययन करते हैं, उसका विकास करते एवं उसे लागू करते हैं। वर्तमान समय
में विधिक वृत्ति चुनने के इच्छुक व्यक्ति को पहले विधि में डिग्री प्राप्त करना होता है या
कोई अन्य विधिक शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है।
आरंभ में विधिक वृत्ति न्यायालय में विधि के गूढ़ार्थ को स्पष्ट करने के सहायतार्थ थी।
आज भी इसका मुख्य कार्य यही है। इसके अतिरिक्त आज अधिवक्ता केवल
विधिविशेषज्ञ नहीं, समाज के निर्देशक भी हैं। आधुनिक समाज का स्वरूप एवं प्रगति
मुख्यत: विधि द्वारा नियंत्रित होती है और विधानसभाओं द्वारा निर्मित विधि केवल
सैद्धांतिक मूल नियम होती है, उसके शब्दजाल को व्यवस्थित कर जो स्वरूप चाहें
अधिवक्ता उसे प्रदान करते हैं। अतएव विधि का व्यावहारिक रूप अधिवक्ताओं के हाथों
ही निर्मित होता है, जिसके सहारे समाज प्रगति करता है। विधिक वृत्ति आधुनिक समाज
का मुख्य आधार स्तंभ है।
विधि का स्वरूप और निर्माण स्वभावतया विधिकारों से संबद्ध और संतुलित होता है।
विधि का रूप तभी परिष्कृत एवं परिमार्जित हो पाता है जब उस देश की विधिक वृत्ति
पुष्ट और परिष्कृत होती है। प्राचीन आदियुग में समाज की संपूर्ण क्रियाशक्ति मुखिया
के हाथ में होती थी। तब विधि का स्वरूप बहुत आदिम था। ज्यों ही न्यायप्रशासन
व्यक्ति के हाथ से समुदायों के हाथ में आया कि विधि का रूप निखरने लगा, क्योंकि
अब नियम व्यक्तिविशेष की निरंकुश मनोवांछाएँ नहीं, सार्वजनिक सिद्धांत के रूप में
होते। विधि के उत्कर्ष में सदा किसी समुदाय की सहायता रही है। मध्य एशिया में
सर्वप्रथम न्यायाधीशों, धर्मप्रधान देशों में धर्मपंडितों, मिस्र और मेसोपोटामिया में
न्यायाधीशों, ग्रीस में अधिवक्ताओं और पंचों, रोम में न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं एवं
न्यायविशेषज्ञों, मध्यकालीन ब्रिटेन और फ्रांस में न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं एवं एटर्नी
तथा भारत में विधिपंडितों ने सर्वप्रथम विधि को समुचित रूप दिया। प्रत्येक देश का क्रम
यही रहा है कि विधिनिर्माण क्रमश: धर्माधिकारियों के नियंत्रण से स्वतंत्र होकर
विधिकारों के क्षेत्र में आता गया। विधिविशेषज्ञों के शुद्ध बौद्धिक चिंतन के सम्मुख
धर्माधिकारियों का अनुशासन क्षीण होता गया।
आरंभ में व्यक्ति न्यायालय में स्वयं पक्षनिवेदन करते थे, किसी विशेष द्वारा पक्षनिवेदन
की प्रथा नहीं थी। विधि का रूप ज्यों ज्यों परिष्कृत हुआ उसमें जटिलता और
प्राविधिकता आती गई, अत: व्यक्ति के लिए आवश्यक हो गया कि विधि के गूढ़ तत्वों
को वह किसी विशेषज्ञ द्वारा समझे तथा न्यायालय में विधिवत् निवेदन करवाए। कभी
व्यक्ति की निजी कठिनाइयों के कारण भी यह आवश्यक होता कि वह अपनी
अनुपस्थिति में किसी को प्रतिनिधि रूप में न्यायालय में भेज दे। इस प्रकार वैयक्तिक
सुविधा और विधि के प्राविधिक स्वरूप ने अधिवक्ताओं (ऐडवोकेट्स) को जन्म दिया।
पाश्चात्य एवं पूर्वी दोनों देशों में विधिज्ञाताओं ने सदा से समाज में, विद्वान् होने के
कारण, बड़ा समान प्राप्त किया। इनकी ख्याति और प्रतिष्ठा से आकृष्ट होकर समाज
के अनेक युवक विधिज्ञान की ओर आकर्षित होने लगे। क्रमशः विधिविशेषज्ञों के शिष्यों
की संख्या में वृद्धि होती गई और विधिसम्मति प्रदान करने के अतिरिक्त इनका कार्य
विधिदीक्षा भी हो गया। फलस्वरूप इन्हीं के नियंत्रण में विधि-शिक्षा केंद्र स्थापित हुए।
विधि सम्मति देने अथवा न्यायालय में अन्य का प्रतिनिधि बन पक्षनिवेदन करने का यह
पारिश्रमिक भी लेते थे। क्रमश: यह एक उपयोगी व्यवसाय बन गया। आरंभ में
धर्माधिकारी तथा न्यायालय इस विधिक व्यवसाय को नियंत्रित करते थे किंतु कुछ
समय पश्चात् व्यवसाय तनिक पुष्ट हुआ तो इनके अपने संघ बन गए, जिनके नियंत्रण
से विधिक वृत्ति शुद्ध रूप में प्रगतिशील हुई। विधिक वृत्ति में सदा दो प्रकार के विशेषज्ञ
रहे-एक वह जो अन्य व्यक्ति की ओर से न्यायालय में प्रतिनिधित्व कर पक्षनिवेदन करते,
दूसरे वह जो न्यायालय में जाकर अधिवक्तृत्व नहीं करते किंतु अन्य सब प्रकार से दावे
का विधि-दायित्व लेते। यही भेद आज के सौलिसिटर तथा ऐडवोकेट में है। विधिक वृत्ति
की प्रगति की यह रूपरेखा प्राय सब देशों में रही है।
लीगल एक्स्पर्ट डॉ नूपुर धमीजा रंजन
अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया
गवर्नमेंट पैनल एडवोकेट हाई कोर्ट जबलपुर मध्यप्रदेश
संस्थापक नारी शक्ति एक नई पहल संस्था
डायरेक्टर जनरल नूपुर लजेलनयू एंड एसोसिएट्