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लक्ष्मण रेखा के बारे में तो हम सभी जानते हैं, पर क्या आप जानते हैं कि इसका असली नाम, “सोमतिती विद्या” है! यह भारत की प्राचीन विद्याओं में से है जिसका अंतिम प्रयोग महाभारत युद्ध में हुआ था।
महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि एक वेदमन्त्र है-
सोमंब्रही वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव
ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति।
यह वेदमंत्र है उस सोमना कृतिक यंत्र का, जिसे पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य कहीं अंतरिक्ष में स्थापित किया जाता है। वह यंत्र जल,वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अंदर सोखता है, और फिर एक खास प्रकार से अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है।
जब महर्षि भारद्वाज ऋषि-मुनियों के साथ भ्रमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुंचे तो उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा “राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा कहाँ तक पहुंची है”?
महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि यह जो ब्रह्मचारी राम है-इसने आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान करना सीख लिया है।
और यह धनुर्वेद में पारंगत हुआ है। वहीं वो लक्ष्मणजी के लिए कहते हैं कि महर्षि विश्वामित्र के द्वारा, ब्रह्मचारी लक्ष्मण एक दुर्लभ सोमतिती विद्या सीख रहा है।
उस समय पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में वह विद्या सिखाई जाती थी। महर्षि विश्वामित्र के गुरुकुल में, महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में, महर्षि भारद्वाज के यहां और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु के गुरुकुल में।
श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि लक्ष्मण उस विद्या में पारंगत था। एक अन्य ब्रह्मचारी “वर्णित” भी उस विद्या का अच्छा जानकार था।
इसके मंत्र को सिद्ध करने से उस सोमना कृतिक यंत्र में जिसने अग्नि के वायु के जल के परमाणु सोख लिए हैं उन परमाणुओं में आकाशीय विद्युत मिलाकर उसका पात बनाया जाता है, फिर उस यंत्र की मदद से लेज़र बीम जैसी किरणों द्वारा पृथ्वी पर गोलाकार रेखा खींच दें।
उसके अंदर जो भी रहेगा वह सुरक्षित रहेगा,लेकिन बाहर से अंदर अगर कोई जबर्दस्ती प्रवेश करना चाहे तो उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं राख बनकर उड़ जाएगा।
ब्रह्मचारी लक्ष्मण इस विद्या के इतने पारंगत हो गए थे कि कालांतर में यह विद्या सोमतिती न कहकर लक्ष्मण रेखा कहलाई जाने लगी।
महर्षि दधीचि,महर्षि शांडिल्य भी इस विद्या को जानते थे,श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस विद्या को जानने वाले अंतिम थे।
उन्होंने कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में मैदान के चारों तरफ यह रेखा खींच दी थी, ताकि युद्ध में जितने भी भयंकर अस्त्र शस्त्र चलें उनकी अग्नि उनका ताप युद्धक्षेत्र से बाहर जाकर दूसरे प्राणियों को संतप्त न करे।