कुम्ही सतधारा /सिहोरा
के हिरन नदी सतधारा घाट पर 14 जनवरी सुबह 4:00 बजे से अब तक हजारों श्रद्धालुओं ने स्नान कर कुंभेश्वर महादेव का अभिषेक, दीप, पुष्प से पूजन किया और नीलकंठ आश्रम के दर्जनों मंदिरों में पूरे समय पूजा अर्चना चलती रही और भगवान के दर्शन करते हुए अपने जीवन में प्रेम, सुख, समृद्धि, व ईश्वर कृपा की कामना किया। मकर संक्रांति के अवसर पर 14 जनवरी से प्रशासन के द्वारा पुरानी संस्कृति व मेला परंपरा की शुरूआत किया गया।
स्वर्गीय जगदीश पांडे जी ने पिछले 5 वर्ष पूर्व बताया था कि एक किताब के अनुसार पूर्व से सतधारा घाट सप्त ऋषि, कुंभक ऋषि, नीलकंठ जी महाराज, बनवारी दास जी महाराज, बंमजी महाराज, बाल ब्रह्मचारी ढेलारामजी, गंगागिरी, पुस्सु पंडा, शंभू दास जी महाराज आदि ऋषियों की पवित्र तपो भूमि माना जाता है। माना जाता है कि आदिकाल में इस पवित्र स्थान पर सप्त ऋषि तपस्या कर रहे थे। बेहती नर्मदा के करीब 30 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में स्थित एक कुंड से हिरन नदी प्रकट होकर पश्चिम की ओर बहने लगी। सप्त ऋषि तपस्या पर बैठे देख, मांँ हिरन नदी भवर का रूप लेते हुए थम गई। तत्पश्चात माँ हिरन ने प्रार्थना कर बोली जन कल्याण हेतु उद्भभव हुआ है। एसा निवेदन किया, तब सप्त ऋषियों ने निकलने की अनुमति दिया और हिरन मां ब्रम्हमहूरत समय पर मकर संक्रांति के दिन दूध के साथ धाराओं में परिवर्तित होकर पश्चिम की ओर बहती हुई पुनः मां नर्मदा में जा मिली। बताया जाता हैं कि नर्मदा का दूसरा रूप या सहयोगी नदी हिरन है। तब से सतधारा घाट के नाम से लोग जानने लगे है।
आदिकाल से सात धाराओं का अद्भुत नजारा देखने के लिए दूर-दूर से लोग पैदल, हाथी, ऊंट, घोड़ा, बैलगाड़ी, रथ, आदि साधनों से इस पवित्र स्थान पर पहुंचकर एकत्र होने लगे और सात दिन पवित्र हिरन नदी में स्नान कर भक्ति, पूजा, तपस्या, करते थे, और अपने जीवन के लिए भक्ति, प्रेम, सुख, समृद्धि, की कामना करते थे। और आज मेला परंपरा बन गया है। सतधारा घाट के अलावा लोकलबोर्ड घाट, बैलहाई घाट, चकदहीई घाट, पथरहा घाट, राजघाट, दुबघटा घाट आदि घाट कूम्भी रियासत के करचुर्री राजाओं के इतिहास की कहानी बता रहे हैं।